Wednesday, 1 June 2016

[amdavadis4ever] वो सौ रुपए -आशुतोष च चा

 



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साहिर और जादू

 जादू और साहिर का रिश्ता बड़ा अजीब था. जादू, जावेद अख़्तर का निक नाम है. लाड का नाम. मिज़ाज शायराना भी है, बाग़याना भी… पूरी Pedigree ही ऐसी है. बाप जां-निसार अख़तर. मामू मजाज़, और अब ससुर कैफ़ी आज़मी. बाप की इज्ज़त तो कभी की नहीं उसने. कोई ग़ुस्सा था. नाराज़गी थी जो जादू की रग-रग में भरी हुई थी. अपने बाप के ख़िलाफ़. मां के जीते जी तो बर्दाश्त भी कर लिया करता था. लेकिन उनके गुज़र जाने के बाद, बात-बात पर घर से निकल जाया करता था और सीधा साहिर के यहां जा पहुंचता. उसकी शकल देखते ही साहिर भी समझ जाते थे कि फिर बाप से झगड़ा कर के आया है. लेकिन वो बिल्कुल जिक्र ना करते इस बात का. जानते थे पहले तो जादू भड़क उठेगा और फिर रो पड़ेगा. दोनों हालतों में उसको संभालना मुश्किल काम था. थोड़ा-सा वक़्फ़ा देकर कहते, "जादू, चल आ, नाश्ता कर ले." और नाश्ता करते-करते जादू ख़ुद ही बोल बाल के भड़ास निकाल लेता और बसोरता हुआ वो दिन उन्हीं के यहां काट देता. मगर कभी कभी यूं भी होता कि साहिर उसे आगाह कर देते, "अख़तर आ रहा है. दोपहर के खाने पर." जादू नज़र उठाके देखता कि यहां भी चैन नहीं. उसका बस चलता तो साहिर के सामने कह देता, "ये बाप, हर जगह! हर वक़्त क्यों…" जादू बेटा जां-निसार अख़तर का था, और मिजाज़ पाया था अपने मामू मजाज़ का. बहुत और बहुत गुस्सीला … साहिर ने उसे बेटे की तरह पाला और दोस्त की तरह संभाला.

 

साहिर कहते, "जादू 'ऐरोज़' में बहुत अच्छी पिक्चर लगी है यार. वो क्या नाम है उसका… जाकर देख आ…"

और इस तरह वो बाप बेटे का सामना होने से बचा देते.

 

बड़ा अनोखा रिश्ता था, साहिर और जादू का. एक बार वो साहिर के घर से भी निकल गया.

"आप ही ने ज़्यादा सर चढ़ा रखा है. मेरे बाप को."

साहिर हंस पड़े तो जादू ने कहा, "मेरा बाप भी इसी तरह हंसता है मुझ पर. मुझे नहीं चाहिए कोई भी. न वो न आप." और लड़ के घर से निकल गया. कुछ दिन ग़ायब रहा खुद्दारी बहुत थी. नाक बहुत ऊंची थी और मिज़ाज उससे भी ऊंचा. पता नहीं कहां सोया, और कहां खाया…!

कमाल साहब, कमाल अमरोही के प्रोडक्शन मैनेजर से दोस्ती थी. उसके साथ ही शाम गुजार देता और रात को वहीं स्टूडियो में, प्रोडक्शन स्टोर में सो जाता.

फिर जब साहिर के घर पर नजर आया तो मुंह उतरा हुआ था, सूरत सूखी हुई थी. साहिर ने लाड से बुलाया, लेकिन जादू का ग़ुस्सा अभी उतरा नहीं था.
"सिर्फ़ नहाने के लिये आप का ग़ुसलख़ाना और साबुन इस्तेमाल करना चाहता हूं. अगर आप को नागवार ना गुज़रे तो…."
"ज़रूर …"
साहिर ने इजाजत दी फिर कहा, "कुछ खालो."
"खा लूंगा कहीं भी. आपके यहां नहीं खाना है मुझे…"

जब नहा कर आया तो साहिर ड्रेसिंग टेबल पर एक सौ रुपए का नोट सामने रखकर, मुसलसल अपने बालों में कंघी किये जा रहे थे. और अल्फ़ाज़ तलाश कर रहे थे कि जावेद से कैसे कहा जाए कि सौ रुपए रख लो… जावेद की ख़ुद्दारी से डरते भी थे, इज़्जत भी करते थे. आख़िर डरते-डरते कह दिया-

"जादू, ये सौ रुपए रख लो, मैं तुमसे ले लूंगा."
सौ रुपए उस जमाने में बहुत बड़ी रक़म हुआ करती थी. सौ का नोट तुड़वाने के लिये भी लोग बैंक में जाते थे, या पेट्रोल पम्प पर.

जादू ने यूं लिया नोट जैसे साहिर पर एहसान कर रहा हो.
"रख लेता हूं. लौटा दूंगा, जिस रोज़ तनख़्वाह मिलेगी."

जावेद शंकर मुखर्जी के साथ असिस्टेंट लग गया था. जहां उसकी मुलाक़ात सलीम ख़ान से हुई थी. बहुत कमाया उसके बाद उसने. शराब मामू की तरह पीता था और पी कर बाप पर भड़ास निकाला करता था, साहिर स्टाइल में. लेकिन वो सौ रुपए उसने कभी वापस नहीं किये. हज़ारों कमाये, फिर लाखों भी आये, पर हमेशा यही कहा साहिर से-

"आप का सौ रूपया तो में खा गया."
और साहिर भी हमेशा यही कहते-
"वो तो मैं तुम से निकलवा लूंगा बेटा…!"


ये नोक-झोंक साहिर और जादू में आख़री दिनों तक चलती रही… और दोस्ती बदस्तूर क़ायम रही.

उस शाम… उस आख़री शाम भी यही हुआ. इतने बरसों में, साहिर अपना मकान बनवा चुके थे. …'परछाइयां' डॉ. कपूर, 'वरसुवा' के एक बंगले में मुंतकिल हो गये थे. जादू एक बहुत कामयाब राइटर हो चुका था. उस शाम साहिर डॉ. कपूर को देखने गये थे. ख़बर मिली थी कि उनकी तबियत ठीक नहीं. हार्ट स्पेशलिस्ट डॉ. सेठ उन्हें देखने आ रहे थे. शायद रामानंद सागर भी थे वहां या बाद में आये. साहिर ने कपूर का जी बहलाने के लिये ताश मंगवाई और उन्हीं के बिस्तर पर बैठ के खेलने लगे. पत्ते बांटते-बांटते अचानक डॉ. कपूर ने देखा, साहिर का चेहरा सख़्त होता जा रहा है. शायद वो दर्द दबाने की कोशिश कर रहे थे. कपूर ने पुकारा… "साहिर…..!"

और उसके साथ ही साहिर, उस बिस्तर पर लुढ़क गये. डॉ. सेठ दाख़िल हुये. बहुत कोशिश की दिल को बहाल करने की. लेकिन साहिर जा चुके थे. डॉ. कपूर की घबराहट देखकर रामानंद सागर, उन्हें फ़ौरन वहां से हटा के अपने घर ले गये. साहिर का ड्राइवर अनवर दौड़ा आया. उसने लाश को संभाल लिया. यश चोपड़ा उनके बहुत नज़दीक थे. उनके यहां ख़बर की तो वो श्रीनगर गये हुए थे. उसके बाद जावेद को ख़बर की. ड्राइवर नहीं था तो वो टैक्सी लेकर पहुंचे. और उस टैक्सी में जादू, साहिर को उनके घर ले आये, परछाइयां में. अनवर और टैक्सी वाले की मदद से उन्हें ऊपर ले गये. फर्स्ट फ्लोर पर, जहां वो रहते थे.

जादू जैसे किसी सन्नाटे में था. लेकिन घर पहुंच कर वो जिस तरह रोया है उनके गले लगकर, ज़िन्दग़ी में कभी नहीं रोया था. उस वक़्त रात का एक बजा होगा. कहां जाये? किस को बुलाये? कुछ नहीं किया जादू ने. अकेला बैठा रहा उनके पास, पास-पड़ोस के लोग पहुंच गये थे. एक पड़ोसी ने कहा, थोड़ी देर में लाश अकड़ने लगेगी. दोनों हाथ सीने पर ले कर बांध दो. बाद में मुश्किल होगी. जादू रोता रहा और वो सब कुछ करता रहा जो लोग बताते गये. फिर सुबह होते-होते लोगों को फ़ोन करने शुरू किये. जैसे-जैसे ख़बर फैलती गयी लोग आना शुरू हुए. बैठने के लिये चादरें निकालो. इधर से कुर्सियां हटा दो. उधर का दरवाज़ा खोल दो. बच्चों की तरह, जादू के आंसू बहे जा रहे थे और वो ये सब काम कर रहा था.


मैयत के इंतजाम के लिये नीचे आया तो देखा टैक्सी वाला वहीं खड़ा है.

 

"उफ़! बताया क्यों नहीं? कितने पैसे हुए तुम्हारे?"

वो कोई बड़ा मुहजिश्ब इंसान था. फ़ौरन हाथ जोड़ दिये.
"मैं साहब… नहीं पैसों के लिये नहीं रुका. इसके बाद मैं कहां जाता रात को?"
जादू ने जेब से बटवा निकाला.
टैक्सी वाला फिर बोला.
"नहीं साहब… रहने दीजिये साहब…."

 

जादू तक़रीबन चिल्ला कर बोला,

"ये लो… रखो सौ रुपए.

मर के भी निकलवा लिये रुपए अपने!"

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